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मंगल पांडे, बिरसा... इन पेड़ों में सारे शहीद

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सांगली
स्कूली बच्चों के ग्रुप के साथ चल रहे 77 साल के संपतराव एक पेड़ के पास रुककर पूछते हैं, 'यह हैं प्रीतिलता वड्डेडर। क्या आप इन्हें जानते हैं?' बच्चों के पास कोई जवाब नहीं। वह एक बच्चे के कंधे पर हाथ रखकर बताते हैं, 'उन्होंने अपनी जिंदगी 21 साल की उम्र में आजादी के लिए कुर्बान कर दी। आइए, मैं आपको ऐसे शहीदों से मिलवाता हूं जिन्होंने अपनी जिंदगी दे दी ताकि आप आजाद देश में सांस ले सकें।'

वह उत्साह के साथ बच्चों को क्रांति वन में घुमाते चलते हैं, 'ये मंगल पांडे, चंद्रशेखर आजाद, बिरसा मुंडा हैं।' महाराष्ट्र के सांगली जिले के छोटे से गांव बालवाड़ी के इस वन में हर पेड़ को स्वतंत्रता संग्राम के नायकों का नाम दिया गया है। लगभग 700 शहीदों से मिलने के बाद ये बच्चे अपने शिक्षकों के साथ वापस चले जाते हैं।

संपतराव बताते हैं कि क्रांति वन शहीदों का एक जीवित स्मारक है। वह कहते हैं कि शहीद कभी नहीं मरते। कई गांववाले उन्हें सनकी कहते हैं। उनका कहना है कि संपत अपना वक्त बर्बाद कर रहे हैं। यहां तक कि वे बताते हैं कि संपत की के बेटे की जान भी इस वन के लिए कुआं बनाते वक्त चली गई थी।

भारत छोड़ो आंदोलन की 50वीं जयंती पर किया समर्पित
हालांकि, संपत के लिए ये बाते नई नहीं हैं। उन्होंने जब 1992 में भारत छोड़ो आंदोलन (9 अगस्त, 1942) की स्वर्ण जयंती मनाने के लिए यह वन बनाने का निश्चय किया, तभी से उन्हें ये सब सुनना पड़ रहा है। पवार स्कूलों और कॉलेजों से वन के विकास में सहयोग करने की अपील करते हैं। उन्होंने गांव में बंजर जमीन का टुकड़ा चुना और उस पर मिट्टी की परतें डालकर उपजाऊ बनाया।

आईं कई रुकावटें
साल 1998 तक कई छात्र उनके साथ आ चुके थे और उनके वन में 1475 से भी अधिक पेड़ लग चुके थे। उन्होंने हर पेड़ को किसी शहीद स्वतंत्रता सेनानी का नाम दिया है। वन में एक खुला हुआ ऑडिटोरियम भी है जहां छात्र एक दिन की ट्रिप पर आकर स्वतंत्रता संग्राम के बारे में सीखते हैं। हालांकि, बीच में कुछ वक्त के लिए जिला प्रशासन ने वन निर्माण को यह कहकर रोक दिया था कि जमीन सरकारी है। पवार ने जिला प्रशासन से पेड़ों के ध्यान रखने की अपील की लेकिन वन विभाग ने 1998 में जमीन लेकर एक साल में लगभग सभी पेड़ों को काट दिया।

बेटा बना सहारा लेकिन नहीं दे सका साथ...
इस पर पवार ने अपने चार एकड़ के गन्ने के खेत में ही पेड़ लगाने शुरू कर दिए। यह देखकर सभी हैरान थे क्योंकि गन्ने की फसल से ही उनका घर चलता था। उस जमीन की कीमत ही करोड़ों में बताई जाती है लेकिन पवार ने कहा कि वह गन्ना किसी और जमीन पर उगा लेंगे। उन्हें समर्थन देने वाला केवल उनका 21 साल का बेटा वैभव था।

बताया गया है कि पानी की सप्लाइ के लिए कुआं खोदते वक्त पत्थर काटने की मशीन की चपेट में आने से वैभव की मौके पर ही मौत हो गई। वैभव की मौत के बाद भी संपत स्मारक बनाने में लगे रहे। वह कहते हैं कि यहां पेड़ नहीं हैं, शहीद हैं और वे बिना सरकीर सहायता के खड़े हैं।

पेड़ लगाना सच्ची श्रद्धांजलि
छात्र और युवा उनके प्रॉजेक्ट के लिए सहायता करते रहते हैं और संपत अब हॉस्टेल और डिजिटल सेंटर बना रहे हैं जहां छात्र आकर रुक सकें। वह कहते हैं कि स्मारक के लिए बड़ी इमारतें बनाना और उन पर करोड़ों खर्च करना जनता के पैसे की बर्बादी है जबकि पेड़ लगाना सच्ची श्रद्धांजलि होती है। वह कहते हैं कि उन्हें सरकारी मदद की जरूरत नहीं है। वह लोगों से आगे आकर इस सपने को पूरा करने की अपील करते हैं।

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