करिश्मा कोतवाल, मंदसौर
कहते हैं कि भारत में प्रतिभा की नहीं अवसरों की कमी है। मध्य प्रदेश के मंदसौर में एस्ट्रो टर्फ (कृत्रिम घास) ना होने के बावजूद 14 साल की सागू डावर अपनी चमकदार छड़ी से सबको प्रभावित करने वाले करतब दिखाती है। सागू ने अपनी हॉकी स्टिक से चाहे कितने ही कमाल किये हो पर उसके दिन की शुरुआत तेज धूप में एक छोटी से झोपड़ी से होती है।
हॉकी स्टिक ले कमाल करने वाली सागू के हाथ में सुबह होते ही झाड़ू होती है। कई घरों में सफाई का काम करने के बाद वह स्कूल जाती है। स्कूल से आने के बाद सबसे पहले वह अपनी स्टिक उठाती है और अपनी झोपड़ी से 2 किलोमीटर दूर हॉकी खेलने निकल जाती है।
हॉकी स्टिक हाथ में आते ही वह फिर नैशनल हॉकी प्लेयर बन जाती है। सागू स्कूल गेम्स फेडरेशन ऑफ इंडिया में अंडर 14 कैटिगरी में खेल चुकी है। गरीबी, सही कोचिंग और अच्छे खेल उपकरणों की कमी जैसी चुनौतियों का सामना मंदसौर के कई नैशनल लेवल के खिलाड़ी कर रहे हैं। इस इलाके की प्रियंका चंद्रवात, नीलू ददिया, संगीता भाभोर, आस्था बोरसी और सागू दवार ऐसे कुछ नाम हैं। बड़ी बात यह है कि ये लड़कियां परिवार का पेट भी पाल रही हैं।
बोरसी बहनों कीर्ति (16) और आस्था (13) के घर की अलमारी ट्रॉफी और मेडल से भरी हैं। लेकिन इनका दिन अपने पिता के गैरेज में बीतता है। कीर्ति ने बताया, 'मेरा सेलेक्शन नैशनल लेवल के स्कूल गेम्स में हुआ था लेकिन अपने पिता के बुरे स्वास्थ्य के कारण में नहीं जा पाई। पिता की तबियत खराब होने के कारण हम ने उनका बाइक गैरेज संभाल लिया। हम एक साल से गाड़ियां रिपेयर कर रहे हैं।'
उनके कोच और पूर्व नैशनल खिलाड़ी अविनाश उपाध्याय ने बताया, 'ऐसा कोई दिन नहीं होता जिस दिन लड़कियां प्रैक्टिस के लिए नहीं आतीं। हमारे पास अत्याधुनिक सामान नहीं है तो मैं उन्हें देसी तरीकों से प्रैक्टिस करवाता हूं।' पिछले 15 सालों से मंदसौर में हॉकी की प्रैक्टिस करवा रहे उपाध्याय ने बताया कि सरकारी मदद के अभाव में प्रैक्टिस करना मुश्किल हो जाता है। निश्चित रूप से सही ट्रेनिंग और आर्थिक मदद से यह लड़कियां भारतीय हॉकी का उज्जवल भविष्य हो सकती हैं।
इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ें: MP Chak De! girls dribble past poverty
कहते हैं कि भारत में प्रतिभा की नहीं अवसरों की कमी है। मध्य प्रदेश के मंदसौर में एस्ट्रो टर्फ (कृत्रिम घास) ना होने के बावजूद 14 साल की सागू डावर अपनी चमकदार छड़ी से सबको प्रभावित करने वाले करतब दिखाती है। सागू ने अपनी हॉकी स्टिक से चाहे कितने ही कमाल किये हो पर उसके दिन की शुरुआत तेज धूप में एक छोटी से झोपड़ी से होती है।
हॉकी स्टिक ले कमाल करने वाली सागू के हाथ में सुबह होते ही झाड़ू होती है। कई घरों में सफाई का काम करने के बाद वह स्कूल जाती है। स्कूल से आने के बाद सबसे पहले वह अपनी स्टिक उठाती है और अपनी झोपड़ी से 2 किलोमीटर दूर हॉकी खेलने निकल जाती है।
हॉकी स्टिक हाथ में आते ही वह फिर नैशनल हॉकी प्लेयर बन जाती है। सागू स्कूल गेम्स फेडरेशन ऑफ इंडिया में अंडर 14 कैटिगरी में खेल चुकी है। गरीबी, सही कोचिंग और अच्छे खेल उपकरणों की कमी जैसी चुनौतियों का सामना मंदसौर के कई नैशनल लेवल के खिलाड़ी कर रहे हैं। इस इलाके की प्रियंका चंद्रवात, नीलू ददिया, संगीता भाभोर, आस्था बोरसी और सागू दवार ऐसे कुछ नाम हैं। बड़ी बात यह है कि ये लड़कियां परिवार का पेट भी पाल रही हैं।
बोरसी बहनों कीर्ति (16) और आस्था (13) के घर की अलमारी ट्रॉफी और मेडल से भरी हैं। लेकिन इनका दिन अपने पिता के गैरेज में बीतता है। कीर्ति ने बताया, 'मेरा सेलेक्शन नैशनल लेवल के स्कूल गेम्स में हुआ था लेकिन अपने पिता के बुरे स्वास्थ्य के कारण में नहीं जा पाई। पिता की तबियत खराब होने के कारण हम ने उनका बाइक गैरेज संभाल लिया। हम एक साल से गाड़ियां रिपेयर कर रहे हैं।'
उनके कोच और पूर्व नैशनल खिलाड़ी अविनाश उपाध्याय ने बताया, 'ऐसा कोई दिन नहीं होता जिस दिन लड़कियां प्रैक्टिस के लिए नहीं आतीं। हमारे पास अत्याधुनिक सामान नहीं है तो मैं उन्हें देसी तरीकों से प्रैक्टिस करवाता हूं।' पिछले 15 सालों से मंदसौर में हॉकी की प्रैक्टिस करवा रहे उपाध्याय ने बताया कि सरकारी मदद के अभाव में प्रैक्टिस करना मुश्किल हो जाता है। निश्चित रूप से सही ट्रेनिंग और आर्थिक मदद से यह लड़कियां भारतीय हॉकी का उज्जवल भविष्य हो सकती हैं।
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