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दिव्यांगों के 'कल के लिए' हीमोफीलिया से नहीं मानी हार

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लखनऊ
हर तरफ ऐतराज होता है, मैं अगर रोशनी में आता हूं, एक बाजू उखड़ गया जबसे और ज्यादा वजन उठाता हूं... दुष्यंत की कही ये लाइनें जयनारायण पर खरी उतरती हैं। करीब 23 वर्ष तक बहराइच से साहित्यिक पत्रिका 'कल के लिए' का सम्पादन-प्रकाशन करने वाले जयनारायण बुधवार को जन्मजात लाइलाज बीमारी हीमोफीलिया (खून नहीं जमने की बीमारी) कभी विकलांगता नहीं लगी। 1998 में एक दुर्घटना के बाद वील चेयर पर आ जाने को भी वे विकलांगता नहीं मानते। कारण सिर्फ उनका जीवट ही नहीं, बल्कि 'कल के लिए' को 'दिव्यांगों की सम्पूर्ण पत्रिका' बना देने से उपजा नया जोश और संतोष है।

बहराइच के किसान पीजी कॉलेज से रिटायर होने के बाद वे डॉक्टर बेटी निमिषा के साथ लखनऊ आए तो फिर यहीं रहने लगे। बेटी के ही सुझाव पर उन्होंने 'कल के लिए' को पूर्ण रूप से दिव्यांगों की पत्रिका बना दिया। एक तो साहित्यिक पत्रिकाएं काफी हो गई हैं, दूसरे दिव्यांगों के लिए पूरी तरह समर्पित एक भी पत्रिका हिंदी में नहीं थी। अप्रैल 2107 से कायांतरित इस पत्रिका के अब तक प्रकाशित छह अंकों ने इसे दिव्यांगजनों को समर्पित सम्भवत: अकेली और श्रेष्ठ पत्रिका के रूप में स्थापित कर दिया है।

पत्रिका का हर अंक अब एक दिव्यांग की संघर्ष-कथा, किसी बीमारी, दिव्यांग से साक्षात्कार, संबंधित जरूरी सूचनाओं, नई खोजों-उपकरणों, समस्याओं, गतिविधियों, खेल-कूद आदि सामग्री समेटे होता है। इसके अलावा कहानी-कविताएं भी ज्यादातर दिव्यांगों की होती हैं। जयनारायण के इस प्रयास में धीरे-धीरे कई चिकित्सकों का सहयोग भी मिलने लगा है।

जयनारायण बताते हैं कि उनकी कोशिश होती है कि पत्रिका का प्रत्येक अंक प्रदेश के कम से कम दो-तीन जिलों के दिव्यांगजनों तक नि:शुल्क पहुंचाया जाए। इस में उन्हें शुभेच्छुओं और सहयोगियों की आवश्यकता है। पत्रिका का प्रकाशन खर्च स्वयं करते हैं। बेटी डॉ. निमिषा कार्यकारी सम्पादक के तौर पर सहयोग करती हैं। जयनारायण से फोन नं 9415036571 या ई-मेल kalkeliye.magazine@gmail.com पर सम्पर्क किया जा सकता है।

हर अंक प्रेरक कथाओं से भरा
'कल के लिए' के अंकों में जब हम एक दुर्घटना में दोनों हाथ और एक पैर गंवा देने वाली सरिता का जीवन संघर्ष पढ़ते हैं या मस्कुलर डिस्ट्रॉफी से दिव्यांग हुए आशीष कुमार त्रिपाठी की जीवनी-शक्ति से दो-चार होते हैं तो नई ऊर्जा और विश्वास से भर उठते हैं। हर अंक ऐसी संघर्ष और प्रेरक कथाओं से भरा है। दिव्यांगों की इस सम्पूर्ण पत्रिका का सम्पादन-प्रकाशन कर जयनारायन सचमुच महत्त्वपूर्ण काम कर रहे हैं। वे कहते हैं कि साहित्यिक पत्रिका के रूप में कई महत्त्वपूर्ण विशेषांक निकाल कर भी वह सुख-संतोष नहीं मिला था जो अब दिव्यांगों की पत्रिका निकालने में मिल रहा है।

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